हम सभी के अन्दर एक गाँव बसता है. अंतर सिर्फ इतना है की हम आज की भाग दौर में गाँव को महसूस करना भूल जाते हैं. पिछले साल जब कोरोना महामारी की वजह से हम सभी को आत्मावलोकन का मौका मिला तो ये एहसास खुलकर सामने आया. मेरा पूरा बचपन अपने गाँव में बीता है. आज भी मैं खुद को गाँव के ज्यादा करीब मानता हूँ. दरअसल ये सच हैं की जो आपके सबसे करीब होता है वो आपके अन्दर से हमेशा झांकता रहता है. आप कहीं भी पहुच जाएँ पर वो आपके साथ चलता है. गाँव से जुड़ी हुई कई खुबसूरत यादें हैं. बचपन के दिनों की वो खूबसूरती अब शायद सदियों पुरानी बात नज़र आती है पर सच यही है की वो आज भी हमारे चेहरों पर मुश्कान ले आती है. हम उस दौर में बड़े हुए जब इन्टरनेट नहीं था, मोबाइल फ़ोन नहीं था. यहाँ तक की हमारे गाँव में बिजली, सड़क और पानी जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं थी. पर हम खुश थे और हम सभी के पास समय था. हम प्रकृति से जुड़े हुए थे. पेड़ पौधे, खेत खलिहान, सभी ने हमारी परवरिस में अपना योगदान दिया था. आज के दौर में सबकुछ अलग है. हम शायद अकेले ऐसे generation हैं जिन्होंने सबसे ज्यादा परिवर्तन देखे हैं. इन परिवर्तनों ने हमें परिवर्तित क...
नए वर्ष 2012 की शुरुआत ग़ालिब और दिल्ली से.. वर्ष 2012 की हार्दिक शुभकामनायें। देखते देखते एक महिना निकाल गया। सोच रहा था की ब्लॉग लिखना फिर से शुरू करना है तो आज मैंने शुरू कर ही दिया। शुरुआत मिर्ज़ा ग़ालिब की चंद पंक्तियों से। उनके देखे से जो आ जाती है मूंह पर रौनक वो समझते हैं की बीमार का हाल अच्छा है देखिए पाते हैं पौशाक बूतों से क्या फैज इक ब्राह्मण ने कहा है के ये साल अच्छा है.. हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन दिल को खुश रखने को 'ग़ालिब' ये खयाल अच्छा है चलो दिल को बहलाने को ही सही खयाल तो अच्छा रहेगा। हम सब जिंदगी के जददों मे इतने उलझ जाते हैं की अपना मनचाहा काम भी पीछे छूट जाता है। लेकिन देर आए दुरुस्त आए। कुछ बातें दिल्ली की। ब्लॉग की शुरुआत मैंने सी डबल्यू जी के दिनो मे की थी। अब लगता है जैसे की वो तो सालों पुरानी बात हो गयी। गेम खतम,चिंताएँ खतम। पर दिल्ली कुछ बदली बदली सी तो ज़रूर लगती है। वर्ल्ड क्लास सिटि न सही लेकिन दिल्ली वालों को काफी कुछ मिला तो ज़रूर। सड़कों के किनारे लगाए गए पौधों मे थोड़ी बहुत हरियाली तो रहती ही है। अब आप ये नहीं पूछिएगा की ये पौधे मैंन...
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